माँसाहार का प्रभाव
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मनुष्य माँसाहारी प्राणी नहीं है। मनुष्य की दांतों की रचना, उसके मुँह की रस ग्रंथियाँ, छोटी आँत एवं अन्य पाचक अवयवों में से कोई भी माँसाहारी प्राणियों की समानता नहीं रखता।
मनुष्य अपना सारा जीवन बिना माँसाहार के बिता सकता है परन्तु केवल माँसाहार पर जीवित नहीं रह सकता।
माँसाहारी व्यक्ति अल्पायु होते हैं जबकि शाकाहारी दीर्घायु।
माँसाहारी सबल और स्वस्थ नहीं बनता बल्कि कंजोर और रोगी बनता है। माँसाहारी को थकान शीघ्र आती है जबकि शाकाहारी को देर से।
फलाहारी के शरीर में जितनी स्फूर्ति, कार्य करने की इच्छा, रुचि, लगन और निष्ठा रहती है, वह माँसाहार से मिलना संभव नहीं है।
माँसाहार अम्ल्धर्मी है। इससे रोग प्रतिरोधक शक्ति (Immunity) कम हो जाती है जिससे तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं।
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माँसाहार में यूरिक एसिड की अधिकता होती है जो शरीर के भीतर जमा होकर गठिया इत्यादि अनेक रोगों को जन्म देती है।
माँसाहार को हृदय रोग अधिक होते हैं तथा कैंसर भी हो सकता है।
माँसाहार से मानसिक रोग अधिक होते हैं, सहनशीलता कम हो जाती है, क्रोध व चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृति पनपती है। क्रूरता व निर्दयता आ जाती है। आपराधिक प्रवृति भी बढ़ती है।
सर्वेक्षण से भी यह बात सामने आ गई है कि अपराधियों में माँसाहारियों की संख्या शाकाहारियों की अपेक्षा बहुत अधिक पाई गई है।
माँसाहार तामसी वृति को जन्म देता है जिससे समाज में आपसी माँ-मुटाव, गृह-कलह, लड़ाई-झगड़े, लूट-खसोट आदि की वारदातें बढ़ती हैं।
अंडा भी माँसाहार ही है। इसमें तो कोलेस्ट्रॉल बहुत ही अधिक और खतरनाक रूप में होता है जो हृदय रोगों के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार है।
माँस व अंडा चाहे वह किसी भी जीव के क्यों न हों, शरीर के लिए तो विष ही हैं।
पश्चिमी देशों के लोग माँसाहारी रहने के बाद भी अब शाकाहार पर वापस आ रहे हैं।
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